तौलिया, अर्शिया, कानपुर / अशोक कुमार पाण्डेय
मेरे सामने जो तौलिया टंगी है
अर्शिया लिखा है उस पर और कानपुर
न कानपुर को जानता हूं मैं
न किसी अर्शिया को जानता हूं जानने की तरह
वे कविताओं में आती हैं जैसे कभी-कभार
जिंदगी में भी अक्सर नितांत अपरिचित की ही तरह
जिस इकलौती परिचित सी लड़की का नाम था उसके सबसे करीब
कालेज के दिनों में थी वह मेरे साथ
प्रणय निवेदन के जवाब में कहा था उसने
‘बहुत खतरनाक हैं मेरे खानदान वाले
कभी नहीं होने देंगे हमारी शादी
हो भी गयी तो मार डालेंगे हमें ढ़ूंढ़कर’
मैं बस चैंका था यह सुनकर
शादी तब थी भी नहीं मेरी योजनाओं में
और अखबारों में इज्जत और हत्या इतने साथ-साथ नहीं आते थे
उन दिनों तौलिये एक कहानी थी किसी कोर्स की किताब की
जिससे शिक्षा मिलती थी
कि परिवार में हरेक के पास होनी ही चाहिये अपनी तौलिया
मुझे नहीं याद कि उस कहानी के आस-पास था किसी तौलिये का विज्ञापन
यह भी नहीं कि क्या थी उन दिनों तौलिये की कीमत
आज सबसे सस्ता तौलिया बीस रुपये का मिलता है
और रोज बीस रुपये से कम में ही पेट भर लेते हैं
सबसे देशभक्त सत्तर फीसदी लोग
उनके बच्चे यकीनन नहीं पढ़ेंगे वह कहानी
कानपुर तक जाता रहा हूं तमाम रास्तों से
भगत सिंह के पीछे-पीछे
शिवप्रसाद मिश्र की रोमांच कथाओं सी स्मृतियों के रास्ते
कमाने गये रिश्तेदारों की कहानियां जोड़ती-घटाती रही इसमें बहुत कुछ
सींखचों के पीछे कैद सीमा आजाद की रिपोर्ट
थी आखिरी मुलाकात उस शहर के साथ मेरी
जिसमें कथा थी उसके धीरे-धीरे मरते जाने की
और नाम था हत्यारों का
पता नहीं उनके आरोप पत्र में
शामिल था भी कि नहीं यह अपराध
खैर
अरसा हुआ दंगे नहीं हुए कानपुर में
तो ठीक ही होगी जो भी है अर्शिया
बशर्ते सावधान रही हो वह भी प्रणय निवेदनों से