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त्याग बलिदान सॆ / राजबुन्देली

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कभी त्याग बलिदान सॆ कभी जीवन-मरण सॆ निकलती है !
कविता कलम सॆ नहीं कवि कॆ अंतःकरण सॆ निकलती है !!
        कभी बिंदु मॆं समॆट लॆती चराचर संसार यह,
        नयन बिन दॆख लॆती है क्षितिज कॆ पार यह,
        हवाऒं का रूप धर लिपट जाती वृक्ष कॆ गलॆ,
        कभी बूँद बन नीर की पुकारती रसातल तलॆ,
कभी शबनम का रूप धर, यॆ पर्यावरण सॆ निकलती है !!१!!
कविता कलम सॆ नहीं.................................................

         शहरॊं का शॊर-गुल कभी दूर दॆश गाँव बन,
         करुणा का सागर कभी आँचल की छाँव बन,
         हिम-शिखर चॊटी कभी सरिता की धार बन,
         संघर्ष की पतवार बन झाँसी की तलवार बन,
शशि कॆ सौम्य सॆ कभी,कभी रवि-किरण सॆ निकलती है !!२!!
कविता कलम सॆ नहीं...................................................

         सूर तुलसी कबीर बनी द्रॊपदी का चीर बनी,
         सीरी-फ़रहाद बनी कभी रांझा और हीर बनी,
         जुल्म की जंजीर बनी सरहद की लकीर बनी,
         यॆ प्याला बन ज़हर का मीरा की तस्वीर बनी,
एकलव्य कॆ अँगूठॆ सॆ कभी अँगद कॆ चरण सॆ निकलती है !!३!!
कविता कलम सॆ नहीं..............................................

         आदि बनी अंत बनी निराला और पंत बनी,
         जॊग बनी भॊग बनी दुर्वाशा- दुश्यन्त बनी,
         गीत गज़ल छंद बनी बिषमता का द्वंद बनी,
         ऋतु का श्रँगार कभी मीन मॊर मकरंद बनी,
कामधॆनु कल्पतरु और कल्पना कॆ ब्याकरण सॆ निकलती है !!४!!
कविता कलम सॆ नहीं.................................................

         हृदय मॆं हिलॊर लॆती नव सृजन चॆतना कभी,
         शब्द-शब्द मॆं हॊती है प्रसव जैसी वॆदना कभी,
         भूल जाता सर्वश जब लक्ष्य का बॆधना कभी,
         कविता का रूप धर लॆती हॄदय -संवॆदना तभी,
दधीचि की अस्थियॊं सॆ कवच और करण सॆ निकलती है !!५!!
कविता कलम सॆ नहीं.............................................