त्याग / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
भयंकर-भाव-विभव-अभिभूत,
स्वार्थ-तम-तोम-आवरित ओक,
लाभ करता है ललित विकास
त्याग-रवि तेज-पुंज अवलोक।
गृह-कलह-बेलि कठोर कुठार,
जाति-गत वैर-पयोद समीर,
निवारण-रत समाज-संताप
त्याग है सुरसरि शीतल नीर।
कालिमामय जिसका है अंक,
तिमिर-मज्जित है जिसका गात,
उस कुमति-रजनी का है त्याग
राग-अनुरंजित दिव्य प्रभात।
हो रहा है जिसके प्रतिकूल
काल का प्रबल प्रवाहित सोत,
दुख-जलधि-निपतित है जो देश
त्याग है उसका अनुपम पोत।
सुजनता-सरसी सुंदर वारि,
संत मत कलित कपाल सुअंक,
त्याग है सुरुचि-कमलिनी भानु,
साधुता-राका-निशा-मयंक।
मुग्ध होता है मानस-भृंग,
मिले उसका कमनीय सुवास,
बनाता है उर-सर को मंजु
त्याग सरसिज का सरस विकास।
सदा सुख-पय करता है पान,
चल अवनि-जन-मन-रंजन चाल,
चुग रुचिर गौरव-मोती चारु
नारि-मानस-गत त्याग-मराल।
बरसता है गृह-सुख वर-वारि,
प्राणि-शिखि-कुल को वितर विनोद,
पति प्रमुद सर को कर रस-धाम,
नारि-जीवन-नभ त्याग-पयोद।
बना दम्पति-सुख-तरु को कांत,
कर कलह-पीत-विपुल-दल अंत।
सजाता है सनेह उद्यान,
नारि-उर विलसित त्याग-वसंत।
मुक्तिमय सुन जिसकी झंकार
बने कितने परतंत्र स्वतंत्र,
भरित जिसमें है पर-हित-नाद,
त्याग वह है वर-वादन-यंत्र।
सफलतामय है साधन-सूत्र,
अमायिकता है जिसका तंत्र,
मुग्ध जिस पर है सिध्दि समूह,
त्याग वह है जग-मोहन मंत्र।
विमलतम भाव-मयंक-निकेत,
भूतिमय पूत विभव रवि धाम,
है रुचिर चिंतन-तारक-ओक,
त्याग का नभतल लोक ललाम।
प्रकाशित उससे है पाताल,
प्रभामय है उससे मृत लोक,
सुर-सदन का है रत्न प्रदीप,
त्याग है तीन-लोक-आलोक।
वे समझते हैं उसको वंद्य,
लोक-हित जिनका है अपवर्ग;
देव-पूजित दधीचि से सिध्द
त्याग पर होते हैं उत्सर्ग।
देश-हित-पथ का प्रिय पाथेय,
समुन्नति-निधि का सहज निजस्व,
भव-विपुल-विभव-परम अवलंब,
त्याग है जन-जीवन-सर्वस्व।