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त्रासदी के पाँव / प्रशांत उपाध्याय
Kavita Kosh से
क्यों न हिलमिल तोड़ डालें
ये घुटन के पाश
चाहता है मन पखेरू
अब नया आकाश
हर डगर पर बढ़ रहे हैं
त्रासदी के पाँव
साध कर चुप्पी खड़े हैं
जिन्दगी के गाँव
द्वार पर लटके हुए हैं
सिर कटे अहसास
हो गयी लम्बी विवशता
और बौने लोग
शून्य से भी कम हुआ है
तृप्ति का कुल योग
मरुथलों के देश बादल
बाँटते बस प्यास
हो गयी हैं आस्थाएँ
आज सब घायल
मौत बाँधे नाचती है
पाँव में पायल
आस के घर में ठहर कर
रह गया संत्रास