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त्राहि, त्राहि कर उठाता जीवन / हरिवंशराय बच्चन

त्राहि, त्राहि कर उठाता जीवन!


जब रजनी के सूने क्षण में,

तन-मन के एकाकीपन में

कवि अपनी विह्वल वाणी से अपना व्‍याकुल मन बहलाता,

त्राहि, त्राहि कर उठाता जीवन!


जब उर की पीड़ा से रोकर,

फिर कुछ सोच-समझ चुप होकर

विरही अपने ही हाथों से अपने आँसू पोछ हटाता,

त्राहि, त्राहि कर उठाता जीवन!


पंथी चलते-चलते थककर

बैठ किसी पथ के पत्‍थर पर

जब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पाँव दबाता,

त्राहि, त्राहि कर उठाता जीवन!