त्राहि, त्राहि कर उठाता जीवन!
जब रजनी के सूने क्षण में,
तन-मन के एकाकीपन में
कवि अपनी विह्वल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता,
त्राहि, त्राहि कर उठाता जीवन!
जब उर की पीड़ा से रोकर,
फिर कुछ सोच-समझ चुप होकर
विरही अपने ही हाथों से अपने आँसू पोछ हटाता,
त्राहि, त्राहि कर उठाता जीवन!
पंथी चलते-चलते थककर
बैठ किसी पथ के पत्थर पर
जब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पाँव दबाता,
त्राहि, त्राहि कर उठाता जीवन!