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त्रिशंकु / समृद्धि मनचन्दा
Kavita Kosh से
कितने ही द्वार
बड़े उद्गार से
तोड़कर निकले
तन्द्रा नहीं
हम भँवर थे
सब झकझोर कर निकले
न ज़मीन मिली
न नभ अपना
हम त्रिशँकु संसार छोड़कर निकले