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थकन का बोझ बदन से उतारते हैं हम / 'रम्ज़ी' असीम
Kavita Kosh से
थकन का बोझ बदन से उतारते हैं हम
ये शाम और कहीं पर गुज़ारते हैं हम
क़दम ज़मीन पर रक्खे हमें ज़माना हुआ
सो आसमान से ख़ुद को उतारते हैं हम
हमारी रूह का हिस्सा हमारे आँसू हैं
इन्हें भी शौक़-ए-अज़ीयत पे वारते हैं हम
हमारी आँख से नींदें उड़ाने लगता है
जिस भी ख़्वाब समझ कर पुकारते हैं हम
हम अपने जिस्म की पोशाक को बदलते हैं
नया अब और कोई रूप धारते हैं हम