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थके-हारे जल बेचारे / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
साँझ बैठी है अकेली
गाँव के बीहड़ किनारे
छाँव के एकांत में चुपचाप
किरणें ढल रही हैं
दूर तक आकाश में
धुँधली हवाएँ पल रही हैं
रास्ते वीरान लगते बेसहारे
चुप खड़ीं शाखाएँ
अँधियारे संजोतीं
फुनगियों पर
थिर अपाहिज रात बोतीं
बरगदों पर टिक गए पहले सितारे
दूर तक उठते धुओं में
नींद फैली
दिन ढला
या हो गई हर आँख मैली
पनघटों पर थके-हारे जल बेचारे