भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
थके हैं मगर / शशि पाधा
Kavita Kosh से
थके हैं मगर, हारे नहीं
भीड़ जैसे ही हैं , कोई न्यारे नहीं|
चौराहे मिले या दोराहे मिले
हम अपनी ही राहें बनाते रहे
लाख भटकन लिपटी पड़ी पाँव में
हम कड़ियों की उलझन हटाते रहे
कोई बाँधे नहीं कोई रोके नहीं
बहती नदिया हैं हम, दो किनारे नहीं|
उदासी-निराशा मिली राह में
हमने नजरें तो उनसे मिलाई नहीं
हाथ छलनी हुए, पैर काँटे चुभे
अपनी पीड़ा किसी को दिखाई नहीं
हौसलों को हमारी कोई दाद दे
जिद्दी हैं हम, पर बेचारे नहीं |
शिकवे शिकायत तो हमराह थे
वक्त अपनी गति से चलता रहा
हारे और जीते कई फ़ैसले
मन बैठा कचहरी सुनता रहा
भोगा जिया, जिन्दगी ऐ तुम्हें
इन्सां हैं हम, चाँद तारे नहीं |
-0-