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थक के चूर हो गए आईने / विजय किशोर मानव
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थक के चूर हो गए आईने
कोई आया नहीं सामने
उनको सातों समंदर दिए,
इनको प्यासी नदी राम ने
गांव-भर में अंधेरा किया
धूप पर मेरे इल्ज़ाम ने
हाथ बांधे खड़े हैं अदीब,
बोलियां लग रहीं सामने
लड़खड़़ाते हैं सारे चलन,
आंधियां आ रहीं थामने