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थक के दर्दो-ग़म चले जब सोने को / कुमार नयन

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थक के दर्दो-ग़म चले जब सोने को
हो गयीं बेचैन आंखें रोने को।

ख़ूने-दिल रुसवाईयाँ फिर दर-बदर
और बाक़ी है मिरा क्या होने को।

घर लुटा दौलत लुटी दिल लुट गया
बोलिये क्या पास है अब खोने को।

साफ़ होकर और चमकेगा अभी
अश्क़ तो ढेरों हैं ख़ुद को धोने को।

पलकों पर अपनी बिठाये रक्खूँगा
हैं मिरी एहसास तुमको ढोने को।

फिर ख़यालों की ज़मीं तैयार है
फिर वही उम्मीद लाया बोने को।

चलते-चलते ही बिता दी ज़िन्दगी
थी कहां दो गज़ ज़मीं भी सोने को।