भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

थक गया है बहुत होरीलाल / प्रदीप शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्वेद कण उभरे हुए हैं भाल
पर अभी रुकना नहीं है
थक गया है बहुत होरीलाल
पर अभी रुकना नहीं है

उमर होगी साठ के उस पार
सिकुड़ता है जिस्म का आकार
है चढ़ाई, मंद होती चाल
पर अभी रुकना नहीं है

धूप के गोले बरसते हैं
पाँव रुकने को तरसते हैं
प्यास के मारे बुरा है हाल
पर अभी रुकना नहीं है

गाँव से आया हुआ सन्देश
खेत में हैं धान के अवशेष
हड्डियों पर बस बची है खाल
पर अभी रुकना नहीं है
थक गया है बहुत होरीलाल
पर अभी रुकना नहीं है।