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थरथराते होंठों का गीत / विमल राजस्थानी

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आज जी भर प्यार कर लो ओ सुहागिन!
क्या पता यह रात रसवन्ती पुनः आये न आये
निमिष की ही सही घन-राशि दृग मिचौनी
क्या पता छवि-छाँह का यह खेल फिर खेला न जाये

तारकों के छवि-निकुंजों की लुनाई
चाँदनी पूतों-फली, दूधों नहाई
आज तो सम्मुख खड़ी छवि-दीप बाले
श्याम घन-कुंतल उरोजों पर सँभाले
आज तो घन-छाँह देती है निमंत्रण
क्या पता मधु मेघ ज्योतिस्नात फिर छाये न छाये

कूकती कोयल, हुई है रात आधी
हो सकी पूरी न अब तक बात आधी
थरथराते होंठ चुम्बन के चितेरे
तप्त तन-मन को सुलगती प्यास घेरे
आज तो रति-पति निछावर प्राण-पण से
क्या पता कल केलि की सौगात फिर लाये न लाये

काल का रथ-चक्र क्या रोके रुकेगा
पंथ थकता है न, पंथी ही थकेगा
बाँध लो इन भागते छùी क्षणों को
गूँथ लो गल-हार में जीवन-कणों को
आज दिशि-दिशि में निनादित वेणु के स्वन
क्या पता कल यह विहंगिनि प्राण की गाये न गाये

-विवाह की छब्बीसवीं वर्ष-गाँठ पर
18 फरवरी, 1976