भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
थारी काया / अर्जुनदेव चारण
Kavita Kosh से
थारी माटी
मुगोतर पावै मां
थूं
पाछी मिनख जमारै मत आजे
म्हैं थारौ जायौ
कीकर सोधूं ऐनांण
खूंटी तांण सूती
इण बस्ती मांय
जिण लोप दी थारी कार
मां
थनै देख जांणी आ बात
कै काया तौ फगत मां री होवै
बाकी स्सैं
सांसां रौ पेटियौ
पूरौ करता
उधारी हांथियां चुकावै
काया रौ भाड़ौ भरणौ
जीवणौ नीं होवै मां
थूं मरण रौ अमर भरोसौ लियां
सूती है
रिंधरोही रौ छेड़ौ नापती