भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

थारै पछै (4) / वासु आचार्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अबै सौ कीं
गुम्यौड़ौ लखावै
गळी गुवाड़ चै‘रा

चीजां सै है
आपरी ठौड़ सागी री सागी
आपरै पूरे होस हवास मांय
सौ की तो है

पण कीं न कीं
जरूर है अैड़ौ
क सौ की अलूणौ लखावै
अन्तस रै अैड़ै छैड़ै

नीं ठा क्यूं
दीखता रै मनै
म्हारी चैतणा रै
झीणै पड़दै माथै

अकास मांय उड़तो
मासूम अर भोळो कबूतर
बाज रै तीखै पंजा सूं
नौंचीजतो

घर री भीता माथै
तणी पूंछ-तीखी आंख्यां
चटका करती रै
गिलार्या-माछरा रा
मंढीज्यौड़ी तस्वीरां मांय
बै चै‘रा
जका काल तांई
हंसता हा खिलता हा
खिलखिला‘र हंसता हा

झटकै सूं खुलै आंख

उबरणौ चाऊ
बै पल अर छिन्न सूं
जको कर्यौ हो मनै हर्यौटांस

अर बो‘ईज करै है
आजकाळै काळौदराख
मांय रो मांय

जद‘ईज तो
सौ की गुम्यौड़ी लखावै

थारै पछै-
था..रै पछै