भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
था हरा और भरा साँवला कोयला / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
था हरा और भरा साँवला कोयला।
हाँ कभी पेड़ था, साँवला कोयला।
वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन,
इसलिए हो गया साँवला, कोयला।
चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये,
ज़िंदगी भर जला साँवला कोयला।
खा के ठंडी हवा जेठ भर हम जिये,
जल के बिजली बना साँवला कोयला।
हाथ सेंका किये हम सभी ठंड भर,
और जलता रहा साँवला कोयला।
चंद वर्षों में ये ख़त्म होने को है,
ऐसे लूटा गया साँवला कोयला।