थिरकता हुआ हरापन / सुरेन्द्र स्निग्ध
(गोवा के एक घने जंगल से गुज़रते हुए)
हरे भरे सघन जंगलों के कटोरे
की कोर पर
धीरे-धीरे ससर रही है हमारी ट्रेन
सुदूर
आदिवासी बस्तियों से
छन-छन कर आ रही है
दमामों की गम्भीर आवाज़
पसर रहा है एक अनहद संगीत
थिरक रहा है हरापन
लबालब भरे हुए कटोरे में
और मदहोश सर्पिनी की तरह
ससर रही है हमारी ट्रेन
इस कटोरे के एक किनारे
उधर, बाँईं ओर
रेल की पटरियों से सटी
ऊँची पहाड़ी से
झर रहा है उजला प्रपात
चाँदनी पिघलकर
झर रही है पलती उजली रेखा की तरह
किसी नन्हें शिशु ने
खींच दी है चॉक से एक लम्बी लकीर
या, ढरक गई है
किसी ग्वालन की गगरी से
दूध की धार
इस घने जंगल में
नाच रहा है कहीं
आदिवासियों का झुण्ड
नाच रही है कहीं
आदिवासी युवतियाँ
बाँध कर पैरों में
हरेपन की घुँघरू,
उनके होंठों से फूटी संगीत लहरी
घुँघरूओं की रून-झुन के साथ मिलकर
बन गई है
प्रपात की सफ़ेद धार
ढरक रही है
पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी से
ढरक रही है
कटोरे की कोर पर
हमारी ट्रेन की पटरियों से
ठीक सटे बाँई ओर।
कटोरे के
थिरकते हुए हरेपन में
प्रतिबिम्बित हो रही हैं
हमारे हृदय की उमंगें
उमग रहा है
हमारा जीवन-संगीत
दोनों मिल रहे हैं, हो रहे हैं एक आकार
ढरक रहे हैं बनकर
दूध का अक्षय भण्डार