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थी अन्धेरी रात, और सुनसान था / बाबू महेश नारायण

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थी अन्धेरी रात और सुन्सान था,
और फैला दूर तक मैदान था;
जंगल भी वहाँ था,
जनवर का गुमाँ था,
बादल था गरजता,
बिजली थी चमकती,
वो बिजली की चमक से रौशनी होती भयंकर सी।
ईश्वर के जमाल का नमूना वाँ था,
ईश्वर के कमाल का ख़ज़ाना वाँ था।
दरख़तों पर जो बिजली की चमक पड़ती अन्धेरे मे,
डालों के तले,
पत्तों में हो कर,
तो यह मालूम होता जैसे हो वह सख़्त घेरे में।