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थी ज़ुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

थी ज़ुबाँ मुरब्बे सी होंठ चाशनी जैसे।
फिर तो चन्द लम्हे ही हो गये सदी जैसे।

चाँदनी से तन पर यूँ खिल रही हरी साड़ी,
बह रही हो सावन में दूध की नदी जैसे।

राह-ए-दिल बड़ी मुश्किल तिस पे तेरा नाज़ुक दिल,
बाँस के शिखर पर हो ओस की नमी जैसे।

जान-ए-मन का हाल-ए-दिल यूँ सुना रही पायल,
हौले-हौले बजती हो कोई बाँसुरी जैसे।

मूलभूत बल सारे एक हो गये तुझ में,
पूर्ण हो गई तुझ तक आ के भौतिकी जैसे।

ख़ुद में सोखकर तुझको यूँ हरा भरा हूँ मैं,
वृक्ष सोख लेता है रवि की रोशनी जैसे।