भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

थे भूल बैठे जिन्हें सारे नज़र आने लगे / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थे भुला बैठे जिन्हें सारे नज़र आने लगे
अब हमें तो दिन में भी तारे नज़र आने लगे

था अमीरी में तवाजन इस तरह बिगड़ा हुआ
लोग सब उन को तो बेचारे नज़र आने लगे

थे मुहब्बत के जो मारे कड़कड़ाती ठंढ में
हैं उन्हें बिस्तर पे अंगारे नज़र आने लगे

जब हुआ चर्चा मुहब्बत का वो महफ़िल छोड़ दी
आज वो भी इश्क़ के मारे नज़र आने लगे

थे सियासी चाल चलते दोस्ती की आड़ ले
अब सभी तकदीर से हारे नज़र आने लगे

भूल सब शिकवे गिले लगते गले से दौड़ कर
वो हमें भी जान से प्यारे नज़र आने लगे

आँख में है आग दहशत की बदलती करवटें
गांव बस्ती के कुँए खारे नज़र आने लगे