थोड़ा-थोड़ा कुछ और भी / अनुपम सिंह
सपनों की दुनिया में
सीखों की गठरी
साथ लाई थीं लड़कियाँ
उम्र के दहलीज़ पर
मचल रही थीं
देह की अनचीन्हीं इच्छाएँ
प्रशाखाओं से फूट रहीं थीं
सप्तपर्णी की कोपलें
लड़कियाँ औरतें बन रहीं थीं
उन्हें आकर्षित करते
उनकी उम्र के लड़के
वे एक-दूसरे की चिन्ता करतीं
ईर्ष्या करतीं एक-दूसरे से ।
खेतों-मेंड़ों से होकर
उड़ा जा रहा था मेरा भी मन
बवण्डर-सा, तुम तक
बज रहा था
झिल्लियों का अनवरत सँगीत
हम बँजारों-सा बदल रहीं थीं
बार-बार मिलन की जगहें
कितनी बार छीली गई वह घास
उसकी जँग थी
अपनी हार के खिलाफ़
उस सफ़ेद डूब-सी तुम
मन-कोटरों में उग आई थी ।
एक उमस भरी रात
हलचलों से पटी जगहें
फिर भी बन्द था एक दरवाज़ा
कम डर नहीं था उस समय
दरवाज़ा खटखटाए जाने का
कूकरों के सीटियों के बीच ही
गैस का दाब ख़त्म होना आम बात थी वहाँ
चीज़ें घटने का कोई कैलेण्डर नहीं था
इच्छाओं ने डर से डरते हुए भी
उसे परे ढकेल दिया था ।
राम की घोड़ियों की तरह
एक-दूसरे को पीठ पर
लाद लिया था हमने
एक जोड़ी साँप की तरह
एक दूसरे में गुँथी रात
बून्द-बून्द पिघल रही थी हमारे बीच
हमने पहली बार महसूस की
होंठों की मुलायमियत ।
तुम्हारे हाथ मेरे स्तनों को
ओह ! कितना तो अपनापा था
न पीठ पर खरोंच
न दाँत के निशान
आहत स्वाभिमान के घमण्ड से
उपजी बदले की भावना भी नहीं
एक दूसरे की देह को
अपनी-अपनी आत्मा सी
बरत रहीं थीं हम
हमारे बीच महक रही थी
सप्तपर्णी की कच्च कोपलें
देह के एक-एक अंग को हमने
साझे में पहचाना था उस रात
रात बीतती रही
छँटती रही रात की उमस
हलचलों से पटी जगहों में
पसर गया अन्तिम पहर का सन्नाटा
रात बीत गई
अन्धेरा चिपका रहा चेहरे पर ।
चेहरे की शिनाख़्त में
छोड़े गए हैं कई जोड़ी खोजी कुत्ते
परित्यक्त जगहों की तलाश में
भटक रही हूँ, मैं बदहवास
अपना ही वधस्थल खोज रही हूँ ।
सूखे हुए कुएँ
उखड़ी हुई पटरियाँ
खचाखच भरी जगहें
छुपने का ठौर नहीं है इस शहर में
सर्च लाइटें
बेध रही हैं
आँखों की पुतरियाँ
ब्रह्माण्ड का शोर
सुन्न कर रहा है कानों को ।
बेआवाज़ चीख़ती मैं
देवताओं की क़समें खाती
लौट रही हूँ
मेरे बग़ल में चल रही है रात
साथ-साथ चलती रात
फिर-फिर भर रही है भीतर
रात और दिन का यह घमासान ।
हुआ और-और गहरा अपराधबोध
ताकतवर रात पछीट रही है दिन को
पछाड़े खाता दिन
हर रात थोड़ा कमज़ोर दिखा
दिन की सारी क़समें तोड़
हमने हर बार रात चुनी
इस तरह हमने जाना
दिन से अधिक
ताक़तवर होती है रात
उसके उथलेपन से
ज़्यादा गहरी भी ।
हमने थोड़ा सपने जिए
थोड़ा सीखें छोड़ी
थोड़ा गुमान किया एक दूसरे पर
जब शब्द नहीं थे हमारे पास
तब भी थे कुछ मुलायम भाव
जब बन रही हो भाषा की नई दुनिया
भाषा में स्थाई महत्त्व हो रात का
तो हिचक कैसी
कैसा अपराधबोध ?
हाँ ! हम दो लड़कियाँ
थोड़ा-थोड़ा कुछ और भी थीं
प्रेम में थीं हम दो लड़कियाँ ।