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थोड़ा-सा पानी है वह भी सुर्ख़ लाल है / विजय किशोर मानव

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थोड़ा-सा पानी है वह भी सुर्ख़ लाल है।
गांव-किनारे की नदिया का यही हाल है॥

छोड़ा गांव, शहर जा पहुंचे, भीड़ हो गए
भूखे जाते जहां, वहीं पड़ता अकाल है।

कित्ता गहरा पानी, कोई किससे पूछे
मरी मछलियों की बदबू से भरा ताल है।

तोडे़ं कैसे पौधों के सपने यह कहकर,
आसमान में अमरबेल का घना जाल है।

नहीं पता है, कहां जा रहे, किसे रौंदते
कहां आ गए हम, ये कैसी भेड़चाल है।

बड़े-बड़े नीलाम हो गए नज़र बचाकर
क़ीमत पूरी नहीं लगी इसका मलाल है।