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थोड़ा जीना हुआ, थोड़ा मरना हुआ / विजय किशोर मानव

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थोड़ा जीना हुआ, थोड़ा मरना हुआ
ज़िंदगी को कुछ ऐसे संवरना हुआ

आदमी जैसा कोई मिला ही नहीं
अपना भीड़ों से जब भी गुज़रना हुआ

रोशनी के लिए घर से निकले मगर
रात अंधों के घर पर ठहरना हुआ

सोचते हैं कहां हम चले आए हैं
पांव जब अपनी चौखट पे धरना हुआ

तेज़ भागे, रहे सबसे आगे मगर
लाल बत्ती पे आकर ठहरना हुआ