नील गगन की मधुशाला में
जाम छलकते हैं बदली के
आओ हम इस सुधा- बिंदु को बूँद बूँद पी लें।
थोड़ा तो जी लें॥
हरियाली की दरी बिछी है
धरती के आँगन ,
स्नेह गंध के लिए भटकता
फिरता पागल मन।
कुछ न कहें सहते ही जायें ,अधरों को सी लें।
थोड़ा तो जी लें॥
यादें फूल बहारों की
भूली बिसरी बातें ,
दुख के दिन बन गए बरस
सुख की थोड़ी रातें।
क्यों अपने घावों को अपने ही हाथों छीलें।
थोड़ा तो जी लें॥
जाने कब दिन ढल जाये
हो जाये शाम घनी।
जाने कब किस से घाट नदी के
साँस थके अपनी।
क्यों न सदा ही मुख अपने गंगाजल तुलसी लें।
थोड़ा तो जी लें॥