भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

थोड़ी-सी भाषा / मणि मोहन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बच्चों से बतियाते हुए
अन्दर बची रह जाती है
थोड़ी-सी भाषा
बची रह जाती है
थोड़ी-सी भाषा
प्रार्थना के बाद भी ।

थोड़ी-सी भाषा
बच ही जाती है
अपने अन्तरंग मित्र को
दुखड़ा सुनाने के बाद भी ।

किसी को विदा करते वक़्त
जब अचानक आ जाती है
प्लेटफॉर्म पर धड़धड़ाती हुई ट्रेन
तो शोर में बिखर जाती है
थोड़ी-सी भाषा ...
चली जाती है थोड़ी-सी भाषा
किसी के साथ
फिर भी बची रह जाती है
थोड़ी-सी भाषा
घर के लिए ।

जब भी कुछ कहने की कोशिश करता हूँ
वह रख देती है
अपने थरथराते होंठ
मेरे होंठो पर
थोड़ी-सी भाषा
फिर बची रह जाती है ।

दिन भर बोलता रहता हूँ
कुछ न कुछ
फिर भी बचा रहता है
बहुत कुछ अनकहा
बची रहती है
थोड़ी-सी भाषा
इस तरह ।

अब देखो न !
कहाँ-कहाँ से
कैसे-कैसे बचाकर लाया हूँ
थोड़ी-सी भाषा
कविता के लिए ।