थोड़ी छाया / कुमार वीरेन्द्र
जब भी कोई
आजी से पइसा
माँगता, टुप्प से कहती, 'कहँवा से
पइसा, ई ला दिया तो ऊ ला दिया', लेकिन, कोई बीमार पड़
जाए, खेत बोने को बीज-खाद घट जाए, त्योहार में तंगी रहे
जाने कवन तो बिल-दरार से, पैसे निकाल लाती
होता जो भी, थमा देती माई को
'ई लs, काम चलावs'
आजी भी का करती
बार-बार कोई माँगता
पइसा, कहाँ से देती, उसके पास ज़रिया बस एक ही
गोइंठा बेचना, तब गाँव से ही नहीं, जवार से भी औरतें आती थीं, जिनके घर नहीं होता था
कोई मवेशी, या ले जाकर शहर में बेचतीं, तो जो जलावन के बाद बच गए, उन्हीं गोइंठों से
दु पइसा की आस, अब तरकारी, नमक, मसाला कीनने के बाद भी, कुछ पैसे कैसे
बचा लेती, किसी को समझ में नहीं आता, कभी-कभी देखता कि
बीमारी, बीज-खाद, कवनो त्योहार के लिए ही
पैसे नहीं उपराजती, बल्कि जब
कवनो औरत आती
माई-चाची से करजा माँगती
और वे कहतीं, 'हमरे पास
कहँवा से पइसा, केहू पुरुब-पछिम कमानेवाला होता, बात
थी', ऐसे में जब वह आजी से कहती, और उसके पास होता, और लगता कि दे देना चाहिए
दे देती, और पैसे तो देती ही, साथ ही यह भी कहती, 'कहना मत केहू से, जब मैं माँगूँगी तब
देना', एक बार देखा, जिसके पुरखों ने कभी सताया था बहुत, उसके नीर को धीर
देते, देते पैसे और अनाज भी, और उससे भी यही कहते, 'केहू से
कहना मत, माँगूँगी तो देना', तब आजी को लगा
मैंने देख लिया है, कहा, 'गरजू है
बेटा, कहना मत...'
भला मैं क्यों कहता
पर इतना बड़ा तो
था ही, जो सोच सकता था, आजी जिसके
पुरखों के जुलुुुम की कथा कहते, भीग जाती थी, उसी का चूल्हा जलाने
के लिए पैसे दिए, और अनाज भी ? सोच ही रहा था, आजी फिर कहने
लगी, 'बेटा, सयाने तो भूख मार सकते हैैं, बच्चों की भूखे ओरी
चूए, ठीक नाहीं, गाछ-बिरिछ होते हैं बच्चे, बेटा
छतनार हुए तो थोड़ी छाया
पड़ोसी के
आँगन में भी आती है !