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थोड़े से सफर में भी / निशान्त
Kavita Kosh से
थोड़े से सफर में भी हम बहुत कुछ देखते हैं
देखते हैं कि हमारे सफर जितनी तो कई कर्मचारियों की
रोज की आवा-जाई है
बूढ़े और बच्चे
बेचते हैं बसों-गाड़ियों में चीजें
हम देखते हैं कि बड़े-बड़े और अशक्त अपंग भी
करते हैं सफर खड़े-खड़े
इसी तरह दिखाई देते है हमें
जगह-जगह मेहनत मशक्कत करते लोग
जिन्हें देखकर भीतर जगता है आत्मविश्वास
हम भूलने लगते हैं अपनी कठिनाईयाँ
भले ही वे जीवन की हों या यात्रा की