दँगा — तीन कविताएँ / विमल कुमार
एक
एक दिन मैं भी मार दिया जाऊँगा किसी दँगे में
फिर बीस साल बाद ये कहा जाएगा
कि मैं मारा नहीं गया हूँ दँगे में
जैसे भूख से मरने पर
कभी नहीं कहता है जिलाधीश
कि एक आदमी की मृत्यु हुई है
क्योंकि वह भूखा था कई दिनों से
इसलिए जब आएँगे दँगाई मुझे मारने मेरे घर
तो मैं सबसे पहले उनसे यही करूँगा विनती
कि मेरी जान ले लो
पर इसका सबूत ज़रूर देकर जाना तुम
कि मैं दँगे में तुम्हारे हाथो ही मारा गया हूँ
क्योंकि अदालत को दरकार होती है इन चीज़ों की
मेरे मरने की तुम सबूत के एवज़ में
मेरे बच्चे की भी तुम जान ले सकते हो
अब मैं मारे जाने के बाद
इकट्ठा कर रहा हूँ ख़ुद ही सबूत
सबूतों को इकठ्ठा करने में भी
मैं मर गया था
जज साहब
अगर मैं दे सका कोई सबूत
आप यक़ीन तो करेंगे मुझ पर
कि मैं मारा गया हूँ दँगे में ही
अगर आपको फिर भी लगता है
कि मैं मारा नहीं गया हूँ
तो मेरा चेहरा देखिए
क्या किसी ज़िन्दा आदमी का चेहरा
ऐसा ही दीखता है आपको ?
दो
क़ातिलों के कई घर हैं यहाँ
पर यहाँ कोई क़ातिल नहीं है .
क़ातिलों की बस्ती में भी अब कितनी रौशनी है
रौनक भी है उनकी महफ़िल में आजकल
पर तुम देख नहीं सकते किसी क़ातिल को
क़ातिलों को कभी पकड़ भी नहीं सकते हो
क़ातिल अब क़ातिल नहीं रहे
उन्हें तुम क़ातिल भी नहीं कह सकते हो ।
तीन
मेरे पास अब किसी चीज़ का कोई सबूत नहीं बचा है
बाढ़ में डूबा था मैं एक बार
तो उसका भी कोई सबूत नहीं है मेरे पास
आग जब लगाई गई थी मेरे घर में
तो उसका सबूत भी कहाँ जुटा पाया था मैं
बिना सबूत के मैं नहीं कह सकता
कि मेरी बहन के साथ बलात्कार हुआ ही था
तुम्हारे सामने ही हुए थे ये सारे हादसे मेरी ज़िन्दगी के
फिर भी तुम माँगते हो मुझसे सबूत
मैं भले ही हार जाऊँ हर बार अपना मुक़दमा
पर कम से कम इस बात का सबूत है
कि तुम्हारी तरह मैं कभी बिका नहीं था
पर तुम्हारे पास ढेर सारे सबूत होने के बाद भी
इस बात का सबूत नहीं है
कि तुम्हारे भीतर बचा है अभी भी एक आदमी