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दंगे के बाद / एकांत श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
एक नुचा हुआ फूल है यह शहर
जिसे रौंद गये हैं आततायी
एक तड़का हुआ आईना
जिसमें कोई चेहरा
साफ-साफ दिखायी नहीं देता
यह शहर
लाखों-लाख कंठों में
एक रूकी हुई रूलाई है
एक सूखा हुआ आंसू
एक उड़ा हुआ रंग
एक रौंदा हुआ जंगल है यह शहर
दंगे के बाद
आग और धुएं के बीच
क्या सिर्फ जलेगा यह शहर
और राख में बदल जायेगा?
या धीरे-धीरे पकेगा
कुम्हार के चाक पर रचे
घड़े की तरह
दरअसल दंगे के बाद भी
कहीं न कहीं बचा रहता है शहर.
एक उजड़ चुके पेड़ के
अदद फल की तरह
पकता और धूल झोंकता
मौसम की आंख में
बचा रहता है
गर्भ में वीर्य की तरह
आकार लेता,
बची रहती है
एक रोते हुए बच्चे की लार में
दूध की जिंदा महक
जो उठती है
और सारी धरती बेकाबू हो जाती है.