दंड / विमल राजस्थानी
बहुत अनोखा काल, कठिन क्षण, बड़ी विचित्र घड़ी है
राज-द्वार पर मथुरा की जनता उमड़ी-घुमड़ी है
क्रुद्ध नृपित के सभा-कक्ष में वासव खड़ी हुई है
लगता है कीलो पर कोई प्रतिमा जड़ी है
रंग उड़ी आकृति, आभूषण-हीन विषण्ण बदन है
नत मस्तक, लगता है खड़ा सम्मुख सदेह क्रन्दन है
धँसी जा रही है धरती में लोक-लाज के मारे
बरसाती है दृष्टि सभी की धिक्-धिक् के अंगारे
कल तक तो उसके इंगित पर प्राण लुटा देते थे
जिसक कूहू-स्वर लाखों की भीड़ जुटा देते थे
एक झलक पाने को जिसकी तरस-तरस जाते थे
जिसके चरणो पर रत्नो के ढ़ेर बरस जाते थे
स्वयम् नृपति के मन-कोने में गुप्त-प्यार पलता था
रूप शिख का तेज हृदय में मंद-मंद जलता था
वही नियति के हाथों की कठपुतली बनी हुई है
कल तक थी सब की, अब सब की भौंहे तनी हुई हैं
सोच रहे है नृपति, सभासद, गण्यमान पुरवासी
-यह नारी है या पिशाचिनी, नागिन अमृत-ला-सी
विश्व-हृदय-साम्राज्ञी ! तेरा रूप घिनौना ऐसा !
सुना गया कहीं पृथ्वी पर, दिखा न मेरा जैसा
जिस शिल्पी ने भाँति तुम्हारी जन-जन का मन जीता
उसकी हत्या पर अभागिनी ! क्या परया मनचीता ?
ओ निर्दोष अतिथि की हत्या करनेवाली ! थू है
धिक्-धिक् ओ चाण्डाली ! उफ ! तू अब तक जीवित क्यांे है
यह साम्रसज्य बुद्ध का, जहाँ अंहिसा का वंदन है
बोधिसत्व के मस्तक पर पोता कालिख्-चंदन है
धिक् अभागिनी ! नारी ऐसी क्रूर नहीं होती है
वह तो पय की धार मार जग को ममत्व देती है
सब के लिये हृदय में उसके प्रीति-प्यार पलते हैं
उसके मन-मन्दिर में करुणा के सुदीप बलते हैं
नारी पहले माँ होती है, और बाद मे कुछ भी
नहीं अनर्थ किया करती है वह प्रमाद में कुछ भी
दुष्टे ! तुमने नारी के आनन पर कालिक पोती
कितना अच्छा होता नहीं उदर में आयी होती
ओ मथुरा-से पुण्य-धाम का नाम लजाने वाली
धिक्-धिक् अयि निर्लज्ज ! स्वयम् की कचजा सजाने वाली
थू है, थू है, धिक्-धिक्-धिक् की हुई अगिन बौछारें
वर्षा होती रही निरंतर, थमेे नहीं अंगारे
धिक्-धिक् सब करते थे, भीतर-भीतर द्वद्व मंचा था
एक समूह अभी भी सभसदों में शेष बचा था
यह जघन्य अपराध करेगी वासव जैसी नारी !
विश्व-सुन्दरी नहीं स्वप्न में बन सकती हत्यारी
यह षड़यत्र किया किसने, समझ नहीं पाते थे
जप-रव के धिक्कार-सिन्धु में डूब-डूब जाते थे
तभी नृपति का गुरु-गँभीर स्वर क्षुब्द सभा में गूँजा
‘‘इस नारी से पतित न होगा इस धरती पर दूजा
कलाकार की हत्या पर जो पाप इसने किया है
कह जझन्य है, इसने जन-तन को अनुताप दिया है
कोंकण-नृप पूँछेगे मुझसे, मैं क्या उतर दूँगा
झुका न जो है कभी वही मस्तक नीचा कर लूँगा
नहीं राज्य मे मेरे चींटी तक की हत्या होती
सहज बुद्ध की करुणा, वंशी की ध्वनि हृदय भिँगोती
श्मशान में इसे फेक दें वधिक, नासिका काटे
दोनो कर्ण कट कर, श्वानों को, गिद्धों को बाँटें
कालिख पुते विरूपित मुखवाली इस हत्यारी को
घिरी प्रहरियों से इस क्रूर, अधम, दुष्टा नारी को
जनाकीर्ण पथ से ले जाकर, बात बता दंे सबको
क्या होगा परिणाम पाप का तवरित जता दें सबको
यही दंड घोषित करता हूँ, सभा भंग होती है‘‘
वासव नत मस्तक, बिसूरती औंर नहीं रोती है
एक बार तो सभी सन्न रह गये, न तृण भी डोला
सबने विश्व-सुन्दरी को देखा, फिर हृदय टटोला
भीतर, कही बहुत भीतर वासव हँस रही खड़ी थी
गिर कर आँखो से वासव मन में बहुत बड़ी थी