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दंभ / प्रदीप कुमार

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औरत है
ये कमी नहीं उसकी,
वो कहाँ अपने से
सृष्टि के होने का दंभ भरती है
उसके कुछ दिन बीमार होने की अवस्था में
पलट जाता है
घर का नक्शा
बंद हो जाती है रसोई से
बर्तनों की खनखनाहट
हो जाता है दिशा विहीन
घर का कोना-कोना
और सिकुड़ने लगता है
खुशियों का आकार भी
रूक जाता है फिर समय का चक्र
भ्रमित हो जाती हैं सारी दिशाएँ
हाँ, वह जब न चाहते हुए भी
दो दिन बिस्तर पर आराम करती है।
औरत है
ये कमी नहीं उसकी,
वो कहाँ अपने से
सृष्टि के होने का दंभ भरती है