भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दइत निअन ई चइत महीना / सतीश मिश्रा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रंग के रंगारंग अँगनवाँ, उड़ गेल फुर्र से चिरईं फगुनवाँ
पहुनवाँ संग-संग चल गेलइ
हमरा भिर रह गेल हमर दू लोरे-झोर नयनवाँ
सपनवाँ संग-संग चल गेलइ।

टिकुली, बिन्दिया, कजरा, गजरा-ई सोरह सिंगार
बन गेल तितकी, लगल जरावे बिरहा के अंगार
सून सेजरिया, सून महलिया, सूना लगे दुआर
कुरचित कोइली के बोली से चुभ-चुभ जाए कटार
बिलखे मन के पिंजड़ा, धैले असरा के टंगनवाँ
सुगनवाँ संग-संग चल गेलइ।

दइत निअन ई चइत महीना पीर-दरद का जाने
भोरे जब झोरे पुरबइया जाने या अनजाने
लगे कि जइसे तीर जिया पर कोई कहीं से ताने
चाहे झुलसल पोर-पोर पर नून-मिचाई साने
लगे कि जइसे देहिआ ऊपर रह गेल पड़ल कफनवाँ
परनवाँ संग-संग चल गेलइ।

लूक भरल बइसाख-जेठ जब नगर-सेवांना आवत
लुकवारी भांजित उनकर सूरतिया याद दिलावत
बरखा के रिमझिम में झूला गोइयाँ सभे लगावत
सब गोइयन के गुइंयाँ सभे लगावत
सब गोइयन के गुइयाँ जखनी झूला हुलस झुलावत
तखनी हम्मर तो अँचरा पर बरसित रहत सवनवाँ
सजनवाँ संग-संग चल गेलइ।
हमरा भिर रह गेल हमर दू लोरे-झोर नयनवाँ
सपनवाँ संग-संग चल गेलइ।