राग धनाश्री
दधि-सुत जामे नंद-दुवार ।
निरखि नैन अरुझ्यौ मनमोहन, रटत देहु कर बारंबार ॥
दीरघ मोल कह्यौ ब्यौपारी, रहे ठगे सब कौतुक हार ।
कर ऊपर लै राखि रहे हरि, देत न मुक्ता परम सुढार ॥
गोकुलनाथ बए जसुमति के आँगन भीतर, भवन मँझार ।
साखा-पत्र भए जल मेलत , फुलत-फरत न लागी भार ॥
जानत नहीं मरम सुर-नर-मुनि, ब्रह्मादिक नहिं परत बिचार ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, ब्रज-बनिता पहिरे गुहि हार ॥
भावार्थ :-- श्रीनन्द जी के द्वार पर आज मोती उग आये हैं । (व्यापारी मोतियों का हार ले आया था)! उसे नेत्रों के सम्मुख देखते ही श्याम मचल पड़ा ; उसने यह बार बार रट लगा दी कि इसे मेरे हाथ में दो (किंतु) व्यापारी ने बहुत अधिक मूल्य बतलाया, सब लोग उस आश्चर्यमय हार को देखकर मुग्ध रह गये । श्याम ने हार को लेकर हाथ पर रख लिया, वे उन अत्यन्त (आबदार एवं) उत्तम बनावट के मोतियों को दे नहीं रहे थे । (हार देना तो दूर रहा,) उन गोकुल के स्वामी ने (हार तोड़कर उसके मोतियों को) यशोदा जी के आँगन में तथा घर के भीतर बो दिया । (श्याम के) जल डालते ही (मोतियों में से) डालियाँ और पत्ते निकल आये, उन्हें फूलते और फलते भी कुछ देर नहीं लगी । सूरदास के स्वामी की इस लीला का भेद देवता, मनुष्य,मुनिगण तथा ब्रह्मादि भी नहीं जान सके; उनकी समझ में ही कोई कारण (मोतियों के उगने का)नहीं आया । किंतु व्रज की गोपियों ने तो उन (मोतियों) को गूँथकर हार पहना ।