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दन्त-कथा / अज्ञेय

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दाँतों में रह गयी कथा
ज्यों प्राणों में व्यथा।
क्या स्रोत, कब कहाँ उद्गम-
हम भूल गये पूछना
या हम से उतना धीरज न बना

शब्दों को भी हमने पूरा न मथा।
रत्नाकर था, पर वहीं हलाहल भी तो था-
हम डरे रहे।
नहीं तो-आह!-अमृत क्या वहाँ न था?