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दफ़्तर के बाद-1 / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
ठोंक दिया दफ़्तरी सलाम
और चल दिए
हम फिर हो गए हाशिए
जैसे कोई दुखता घाव
करे ब्लीडिंग
हम ऐसे ही करते रहे
प्रूफ़-रीडिंग
आख़िर हैं धूप के ग़ुलाम
छाँह के दिए
परवशता के दुभाषिए