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दम घुटता है मगर अभी तक ज़िन्दा हूँ / डी .एम. मिश्र
Kavita Kosh से
दम घुटता है मगर अभी तक ज़िन्दा हूँ
भीड़ खड़ी है साथ मगर मैं तन्हा हूँ
तफ़रीहन खैरियत यहाँ पूछी जाती
कहना पड़ता है बिल्कुल मैं चंगा हूँ
बेटे की भी मुझको सुननी डांट पड़ी
सोच के यह खामोश रहा अब बूढ़ा हूँ
खुद अपनी खुशियों को आग लगा देता
अपनी तरह का एक अकेला बंदा हूँ
अगर ज़माने से हटकर कुछ सोचूँ तो
लोग समझ लेते इंसां बेढंगा हूँ
कैसे मानूँ खुद को सच्चा और खरा
आँखों वाला होकर भी गर अंधा हूँ
ख़ूँ होते देखा , वह भी ख़ामोशी से
कितना कायर हूँ , मैं कितना ठंडा हूँ