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दम घुट रहा है रात दिन / शीन काफ़ निज़ाम

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दम घुट रहा है रात दिन की सर्द जंग से
बाहर निकाल दे मुझे ठंडी सुरंग से

इक चीख दब के रह गई आफाक के करीब
निकलेगा पा-ए-फील क्या दहने-निहंग से

मुम्किन है खाके-पा का करे वो भी इन्तजार
मिलता है उस का रंग भी पत्थर के रंग से

चख लूं, ये कह के चाट गया रोशनी तमाम
वो सांप मर सकेगा न तेगो-तुफंग से

खामोश बेजुबान सा मैं देखता रहा
शर्मा रही थी धूप भी चेहरों के रंग से

वो हाथ धो न बैठै बसारत से एक दिन
जो खेलता है हल्क-ए-अश्काले-रंग से

होशो-हवास अब के सबुकसर हुए ‘निजाम’
आवाज जाने कैसी निकलती है चंग से