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दम न निकला यार की ना-मेहरबानी देख कर / शेख़ अली बख़्श 'बीमार'

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दम न निकला यार की ना-मेहरबानी देख कर
सख़्त हैराँ हूँ मैं अपनी सख़्त-जानी देख कर

शाम से ता-सुब्ह-ए-फ़ुर्कत सुब्ह से ता-शाम-ए-हिज्र
हम चले क्या क्या न लुत्फ़-ए-ज़िंदगानी देख कर

यूँ तो लाखों ग़म्ज़दा होंगे मगर ऐ आसमाँ
जब तुझे जानूँ कि ला दे मेरा सानी देख कर

अब तप-ए-फ़ुर्कत से ये कुछ ज़ोफ़ तारी है कि आह
दंग रह जाती है हम को ना-तवानी देख कर

वास्ते जिस के हुए बहर-ए-फ़ना के आश्ना
वो पसीजा भी न अपनी जाँ-फिशानी देख कर

बाज़ आ ‘बीमार’ उस के इश्क़ से जाने भी दे
तर्स आता है ये तेरी नौ-ज़वानी देख कर