दम होंटो पर आ के रुका था / नासिर काज़मी
दम होंटो पर आ के रुका था
ये कैसा शोला भड़का था
तन्हाई के आतिशदां में
मैं लड़की की तरह जलता था
ज़र्द घरों की दीवारों को
काले सांपों ने घेरा था
आग की महलसरा के अंदर
सोने का बाज़ार खुला था
महल में हीरों का बंजारा
आग की कुर्सी पर बैठा था
इक जादूगरनी वां देखी
उसकी शक्ल से डर लगता था
काले मुंह पर पीला टीका
अंगारे की तरह जलता था
एक रसीले जुर्म का चेहरा
आग के सपने से निकला था
प्यासी लाल लहू-सी आंखें
रंग लबों का ज़र्द हुआ था
बाज़ू खिंचकर तीर बने थे
जिस्म कमां की तरह हिलता था
हड्डी हड्डी साफ अयाँ थी
पेट कमर से आन मिला था
वहम की मकड़ी ने चेहरे पर
मायूसी का जाल बना था
जलती सांसों की गरमी से
शीश-ए-तन पिघला जाता था
जिस्म की पगडंडी से आगे
ज़ुर्मो-सज़ा का दोराहा था।