भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दयारे-गै़र में सोज़े-वतन की आँच न पूछ / फ़िराक़ गोरखपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

  

दयारे-गै़र में सोज़े-वतन की आँच न पूछ
ख़जाँ में सुब्हे-बहारे-चमन की आँच न पूछ

फ़ज़ा है दहकी हुई रक्‍़स में है शोला-ए-गुल
जहाँ वो शोख़ है उस अंजुमन की आँच न पूछ

क़बा में जिस्म है या शोला ज़ेरे-परद-ए-साज़
बदन से लिपटे हुए पैरहन की आँच न पूछ

हिजाब में भी उसे देखना क़यामत है
नक़ाब में भी रुख़-ए -शोला-ज़न की आँच न पूछ

लपक रहे हैं वो शोले कि होंट जलते हैं
न पूछ मौजे-शराबे-कुहन की आँच न पूछ

'फ़ि‍राक़' आइना-दर-आइना है हुस्ने -निगार
सबाहते-चमन-अन्दर-चमन की आँच न पूछ