भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दयार-ए-ग़ैर में कोई जहाँ न अपना हो / अली सरदार जाफ़री
Kavita Kosh से
दयार-ए-ग़ैर में कोई जहाँ न अपना हो
शदीद कर्ब की घड़ियाँ गुज़ार चुकने पर
कुछ इत्तेफ़ाक़ हो ऐसा कि एक शाम कहीं
किसी एक ऐसी जगह से हो यूँ ही मेरा गुज़र
जहाँ हुजूम-ए-गुरेज़ाँ में तुम नज़र आ जाओ
और एक एक को हैरत से देखता रहे