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दया कके, खुद अपने इच्छा से / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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दया क के, खुद अपने इच्छा से,
तूं अपना के छोट बना के, छोट घर में आवेलऽ
तबहीं नूं तहरा रूप के अमृत पीके
हमरा आँखन के भूख खतम हो जाला?
जल में, थल में, ना जानी जे कतना रूप ध के,
तूं हमरा के दरस देख लावेलऽ
भाई बनके, पिता बनके, माता बनके,
तूं खुदे अपना के छोट बना के
हमरा हृदय में आवेलऽ
तब भला हम अपना हाथे
तहरा विश्वव्यापी रूप के
काहे छोट करीं?
एह सब छोटहन संबंधन से
तहार परिचय काहे दीं?