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दरअसल / सुशान्त सुप्रिय
Kavita Kosh से
मुझे लगा था
मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ
बरसों से साथ रहते आए थे
हम दोनों
मैंने अपनी उँगलियों के पोरों से
उसके अंगों को ज़िया था
मैंने उसकी गुलाबी त्वचा को
अपने होंठों से छुआ था
पर मैं उसके ज़हन की लकड़ियों
के नीचे दबी सुलगती आग से
अनभिज्ञ था
एक दिन वह चली गई
मेरी हिलती-थरथराती अलगनी को
सूना छोड़कर
तब मैंने जाना
कि दरअसल वह तो
किसी सुदूर आकाश-गंगा से आता
कोई विरल-संकेत मात्र थी
कि दरअसल वह तो
समय की गुफ़ा में उकेरी गई
किसी प्रागैतिहासिक भित्ति-चित्र की
अध-मिटी प्रस्तुति मात्र थी ।