भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दरख़्तों के साये तले / तेजेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
दरख्तों के साये तले
करता हूं इंतजार
सूखे पत्तों के खड़कने का
बहुत दिन हो गये
उनको गये
घर बाबुल के .
रास्ता शायद यही रहा होगा
पेड़ों की शाखों
और पत्तियों में
उनके जिस्म की खुशबू
बस कर रह गई है.
पत्ते तब भी परेशान थे
पत्ते आज भी परेशान हैं
उनके कदमों से
लिपट कर, खड़कने को
बेचैन हैं .
मगर सुना है
कि रूहों के चलने से
आवाज नहीं होती .