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दरख़्तों के साये तले / तेजेन्द्र शर्मा

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दरख्तों के साये तले
करता हूं इंतजार
सूखे पत्तों के खड़कने का
बहुत दिन हो गये
उनको गये
घर बाबुल के .

रास्ता शायद यही रहा होगा
पेड़ों की शाखों
और पत्तियों में
उनके जिस्म की खुशबू
बस कर रह गई है.

पत्ते तब भी परेशान थे
पत्ते आज भी परेशान हैं
उनके कदमों से
लिपट कर, खड़कने को
बेचैन हैं .

मगर सुना है
कि रूहों के चलने से
आवाज नहीं होती .