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दरद के आँसू / बैद्यनाथ पाण्डेय ‘कोमल’
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दरद आँसू बन के आइल।
दिन के चैन न रात के निंदिया;
याद जगावे रहि-रहि बिंदिया;
हाय पिया के बिरह-व्यथा से
देहिया पियराइल।
हँसल बसन्ती पतझड़ बीतल;
चमके रंग गुलाबी पल-पल;
झरल बिरिछिया के डालन पर
पतई लहराइल।
तज के गगन बदरिया भागल,
रतिया में मेला बा लागल,
धरती से नभ तक चानी के
लहंगा फहराइल।
रंग चढ़ल मस्ती के सब पर,
बाएँ-दहिने, नीचे-ऊपर,
कोइल के ‘कुहू’ ‘कुहू’ से
मनवाँ मधुआइल।
दरद आँसू बन के आइल।