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दरद भायला / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
संवेदणा बिहूणी
सीला माथै
रगड़का खांवता
बांसती आखर
कठै कोर सकै
सिन्दूरी सुपना
जका रात में
भरी नींद आवैं
जागती आंख्या में
फगत रड़कै।
सामी छाती
आभै रो सतरंगी
लै’रियौ चिर
इन्नर धणख ई
जद डबड़कां में
बदळ जावै।
नैणां भर नींर
मांयली पीड़
बा’रै परगटा सकै
खुद नीं मुळकै
पण लोकां मै हंसावै।
दरद रा डीगा डूंगर,
छानै नीं रवै।
सुख नै अंवेर’र
गोज में धरल्यां
बांथ में भरल्यां
धन है दरद !