दरभंगा गेस्ट हाउसमे साँझ / राजकमल चौधरी
हम एकसर नहि छलहुँ, हमरा संगे छल एकटा किताब,
‘कन्यादान’ अथवा ‘द्विरागमन’;
समय कटबाक लेल नहि कोनो आन साधन।
मोनमे वैकल्य,
प्राणमे उमगल छल चान-सन प्रतीक्षा
कि, चान उगत, श्वेत सुन्दर अपावन।
साँझ मुदा, अनचिन्हार बनल
‘चुप्पी’ लघने छल,
कौखन निर्जन पोखरिक काते-कात औनाइत,
कौखन पिबैत चाह
कौखन लोकसभसँ पुछैत; की औ, सत्ते
ई पोखरि अछि अथाह?
आधा गेस्ट हाउस पूबक शीतल अन्हारमे डूबि गेल;
रहि गेल अर्द्ध-भाग पश्चिमक
अन्तिम सूर्य-किरणकेँ पकड़ैत छुबैत
बड़ी काल धरि।
श्यामा-मन्दिरमे बड़ी काल धरि बाजल घड़ी घंट,
दू टा बूढ़ि बंगाली स्त्री कयलनि प्रणाम
हम सोचि रहल छी, कतेक गप्प सभ,
पाकल, फूटल, अंट-संट।
हम एकसर नहि छी, हमरा संगे कतेक लोक अछि-
सभक हृदयमे हमरे हेतुक कतेक प्रेम अछि,
कतेक शोक अछि...
हम एकसर नहि छी।
हमरे कारण कोप-भवन बनि, कैकेयी बनि,
पसरल अछि ई साँझ सोहाओन;
हमरे कारण
ई वसन्त अछि बनि गेल साओन!
एखने तारावलि छितरायत,
जागत सूतल चान।
मोनमे वैकल्य, प्राणमे उमगल छल चानक प्रतीक्षा।
लाल पजेबाक ई पुरान आ पैघ भवन
हमर आँखिमे
आ, फाल्गुनक स्निग्ध इजोरिआमे
डूबि
गेल;
एक्के छनमे, अकस्मात्!
हाथमे दू टा कापी, चारि टा मोट-पातर किताब लेने,
(‘कन्यादान’ नहि, द्विरागमन’ नहि...)
ओ आबि गेलीह, थाकल-ठेहिआयल अपस्याँत!!
बजलीह-कालेजक फीस माफ नहि भेल,
नहि कीनि सकलहुँ बी.ए. सभटा किताब!
ककरो दोख नहि, कर्म हमरे अछि
खराब! बिन पढ़ने, कहू तँ कोना देब हम परीक्षा?
एहिना एहू बेर समाप्त भेल,
चानक, नव बसन्त-स्थानक प्रतीक्षा!
(मिथिला मिहिर: 10.10.65)