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दरवाज़ा जो खोला तो नज़र आए खड़े वो / परवीन शाकिर
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दरवाज़ा जो खोला तो नज़र आए खड़े वो
हैरत है मुझे आज किधर भूल पड़े हो
भूला नहीं दिल हिज्र के लम्हात कड़े वो
रातें तो बड़ी थीं ही मगर दिन भी बड़े वो
क्यों जान पे बन आई है बिगड़ा है अगर वो
उसकी तो ये आदत कि हवाओं से लड़े वो
इल्ज़ाम थे उसके कि बहारों के पयामात
ख़ुशबू सी बरसने लगी यूँ फूल झाड़े वो
हर शख्स मुझे तुझसे जुदा करने का ख्वाहाँ
सुन पाए अगर एक तो दस जाके जड़े वो
बच्चे की तरह चाँद को छूने की तमन्ना
दिल को कोई शह दे दे तो क्या क्या न अड़े वो
तूफ़ान है तो क्या गम मुझे आवाज़ तो दीजे
क्या भूल गए आप मिरे कच्चे घड़े वो