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दरवाज़ा / राजा पुनियानी
Kavita Kosh से
यूँ तो देखने के लिए
पत्रिकाएँ हैं
वाचाल अख़बार है
दिमाग सड़ाने वाला टेलीविजन है
देखने के लिए कम-से-कम
दीवार पर टँगा टकटकी लगाए कैलेण्डर है
देखने के लिए
बूढ़ी माँ का खगोल ललाट है
छोटी बेटी की छोटी-सी अनन्त सूरत है
एक खिड़की आकाश
एक किरणपुंज धूप
और एक आईना चाँद है
वैसे खाली दीवार, गहरे कुएँ और टमाटर के अकेले खेत को
ताक सकती थी वह
चिन्ताओं से खचाखच भरे मन से बाहर
अकेली कहानीनुमा खिड़की को
खिड़की से बाहर उस बेख़बर पेड़ को
पेड़ से आगे शहर को जोड़ती कच्ची सड़क को भी
ताक सकती थी वह
लेकिन जाने क्यों
वह तो ताकती रहती है
दरवाज़े को ही
उसी कच्ची सड़क से गुज़रते परदेशी ने
कभी उससे कहा होगा
उसी दरवाज़े से लौट आएगा वह
मूल नेपाली से अनुवाद : कालिका प्रसाद सिंह