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दरस बिनु रहहिं दुखारी नैन / स्वामी सनातनदेव

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राग सोहनी, तीन ताल 29.7.1974

दरस बिनु रहहिं दुखारी नैन।
पल-पल ललकत रहहिं प्रानधन! है न चैन दिन-रैन॥
बिनु आहार जीव की जैसे भूख न कैसेहुँ जाय।
जल बिनु जैसे तृसित वापुरो पर्यौ-पर्यौ बिलखाय।
त्यों ही रूप-रसिक ये नयना दरस बिना बेचैन॥1॥
जल बिनु दीन मीन ज्यों प्यारे! तरसि-तरसि मरि जाय।
सदा-सदा सर में हूँ सरसिज सूरज बिनु मुरझाय।
त्यों ही तुव छवि-रवि बिनु प्रीतम! विकल रहहिं ये नैन॥2॥
बहुत भाँति समुझाय थक्यौं मैं सर्यौ न एकहुँ काम।
जाकी जासों लगन न ता बिनु मिलत ताहि विसराम।
तो तुव दरस बिना ये नयना कैसे पावंे चैन॥3॥
एक बार तो दया करहु निज-दरस-सुधा सरसावहु।
इन दुखिया अँखियनकों प्यारे! धीरज नैकु-बँधावहु।
होय प्रीति-परिपोषन मोहन! जो पावहिं वे चैन॥4॥